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तिल की खेती: तिल की ये किस्में कर देगी आपको मालामाल

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तिल की खेती

इस ब्लॉग के आधार पर तिल की खेती की जानकारी व उन्नत किस्में सावधानियां नए तरीके के बारे में बताएंगे

तिल की फसल तिलहनी फसल है। भारत के अधिकांश राज्यों में तिल की खेती की जाती है तिल की खेती खरीफ सीजन में की जाती है अधिकांश राज्य जैसे राजस्थान की अधिक क्षेत्रों में असिंचित क्षेत्र में ज्यादा की जाती है। राजस्थान में तिल की खेती लगभग 6.68 लाख हेक्टर में की जाती है।

कुल राजस्थान का क्षेत्र लगभग 19.31% है। तिल से 45 से 50% तेल प्राप्त होता है। तिल की खेती राजस्थान के साथ-साथ अन्य राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व बिहार इत्यादि राज्य में की जाती है।

तिल की खेती के लिए जलवायु

गर्म मौसम में तिल की खेती अच्छी होती है। अगर तापमान की बात करें तो 20 डिग्री से 35 डिग्री तक तापमान उत्तम माना जाता है। अधिक वर्षा वाले इलाकों में फफूंद जनित रोग का प्रकोप बढ़ जाता है।

तिल की फसल के लिए जमीन

तिल की अच्छी उपज के लिए जल निकासी वाली जमीन होनी चाहिए। हल्की दोमट मिट्टी सबसे सर्वोत्तम मिट्टी मानी जाती है। मिट्टी का पी.एच मान 5.5 से 7.5 वाली मिट्टी में अच्छे से उगाया जा सकता है।

खेत की तैयारी

पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले देसी हल से करें। 2 से 3 बार गहरी जुताई कल्टीवेटर या हल से करें। एक हेक्टर में 15 से 20 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाये। खेत की तैयारी के वक्त नीम की खली डालें इससे फंगस जनित रोगों की रोकथाम हो सके। बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होने से बीज का अंकुरण अच्छे से होता है।

खाद एवं उर्वरक

अगर संभव हो तो मिट्टी की जांच करवानी चाहिए जिससे संतुलित खाद का प्रयोग कर सके।वह बुवाई से पूर्व 250 किलोग्राम जिप्सम के प्रयोग से उत्पादन क्षमता बढ़ती है।

सिंचित क्षेत्र में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर में डालें। वर्षा आधारित क्षेत्रों में 20 किलोग्राम फॉस्फोरस व 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टर में डालने से तिल का उत्पादन काफी हद तक बढ़ जाता है।

तिल की फसल के लिए सिंचाई

तिल की फसल वर्षा आधारित होती है। सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है अगर 60 से 70% तक फलिया बनने पर सिंचाई करनी जरूरी होती है।

तिल की निराई गुड़ाई

खरीफ सीजन की फसल होने से खरपतवार ज्यादा उगते हैं। आवश्यकता अनुसार खरपतवार निकाले व निराई गुड़ाई करें। खरपतवार नियंत्रण नहीं होने से उत्पादन में कमी आ जाती है। खरपतवार रोकथाम के लिए पेंडामैथालिन 30 EC 1 लीटर 800 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करने से खरपतवार नहीं उगते हैं।

तिल का बुवाई का समय

फसल की बुवाई समय का फसल का उत्पादन में बड़ा सीधा महत्व होता है। मानसून की पहली बारिश के बाद जुलाई में तिल की बुवाई कर देनी चाहिए समय पर बुवाई करने से अच्छा उत्पादन प्राप्त होता है।

तिल बुवाई की विधि

तिल की खेती

तिल की बुवाई अधिक गहराई में ना करें। बीज की गहराई लगभग 3 से 4 सेमी होनी चाहिए तथा लाइन से लाइन की दूरी 30 से 40 सेमी होनी चाहिए। पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेमी होनी चाहिए एक बीघा में आधा किलो बीज पर्याप्त होता है।

बीज उपचार

जड़ तथा तना गलन की बीमारियों की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम 2 से 4 ग्राम प्रति किलो के हिसाब से बीज उपचारित करना चाहिए।

तिल की किस्में

तिल की हाइब्रिड किस्म का चयन करने से फंगस जनित रोगों व कीड़ों का कम प्रकोप होता है। 20 से 30% उपज ज्यादा प्राप्त होती है। अधिक उपज के लिए निम्नलिखित तिल की किस्मो को प्रयोग में लेना चाहिए।

टी-78 ,आर.टी-350,आर.टी-351, टी.के.जी-306 टी.सी-25, आर.टी-127, आर.टी-46, टी-13, आर.टी-125

टी.सी-25

यह किस्म जल्दी पकने वाली होती है। यह 90 से 100 दिनों में पक्का तैयार हो जाती है इसके पौधे 90 से 100 सेंटीमीटर ऊंचाई तक लंबे होते हैं। तिल के पौधों पर औसतन चार से पांच शाखाएं निकलती है। 65 से 70 कैप्सूल आते हैं इस किस्म की मुख्य विशेषता है कि इसके कैप्सूल एक साथ पकते हैं। इसके बीजों का रंग सफेद होता है प्रति हेक्टर 4 से 5 क्विंटल होती है। तेल की मात्रा 45 से 50% तथा प्रोटीन की मात्रा 26 से 27% होती है।

आर.टी-127

यह किस्म 75 से 85 दिनों में पक्का तैयार हो जाती है। इसके बीजों का रंग सफेद होता है। तेल की मात्रा 45 से 47% होती है वह प्रोटीन की मात्रा 27% होती है। यह किस्म जड़ तथा जड़ गलन रोग फाइलोडी एवं पत्ति धब्बा रोग के प्रति सहनशील होती है। इसकी उपज प्रति हेक्टेयर 6 से 9 क्विंटल तक होती है।

आर.टी-46

यह किस्म 75 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसमें 30 से 35 दिनों में फूल आने शुरू हो जाते हैं इसके पौधे की ऊंचाई 100 से 125 सेमी होती है। पत्ति व फली छेदक किट और गाल मक्खी जैसे कीट कम लगते हैं। हर पौधे पर 4 से 6 शाखाएं निकलती है इसका उत्पादन 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टर में होता है तेल की मात्रा 49 % होती है। बीज का रंग सफेद होता है।

आर.टी-125

इस किस्म की मुख्य विशेषता यह है कि यह एक साथ पकाने वाली होती है यह 80 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके पौधों की ऊंचाई 100 से 115 सेमी तक होती है औसतन उपज 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होती है।

टी-13

यह किस्म 90 से 100 दिन में पककर तैयार होती है इसके कैप्सूल की संख्या 50 से 60 होती है इसके बीच का रंग सफेद होता है। 100 से 125 सेमी के ऊंचाई वाले पौधे होते हैं इसमें तेल की मात्रा 49% व प्रोटीन 24% होती है। इसकी उत्पादन क्षमता 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होती है।

तिल की खेती में होने वाले कीट व रोग

गाल मक्खी

यह तिल की फसल का प्रमुख रोग होता है जो फसल को अधिक हानि पहुंचाने में सक्षम होता है। गिडार सफेद मटमैली भूरे रंग का कीट होता है। इसके आक्रमण से कलियों पर गांठ के रूप में धारण कर लेते हैं। जिससे कैप्सूल नहीं बन पाते हैं।

रोकथाम

  • मोनोक्रोटोफास 36 WP 1 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

फली और पत्ति छेदक रोग

  • लट पत्तियां व फलियों को खाकर काफी हद तक नुकसान पहुंचती है।

रोकथाम

  • मोनोक्रोटोफास 36 WP या प्रोफैक्स सुपर 1 लीटर में 2 मल डालकर छिड़काव करें।

फाईलोडी रोग

तिल की खेती

इस रोग का अटैक पुष्पावस्था मैं होता है यह रोग पत्ति मोडक कीटो के कारण फैलता है। पुष्पावस्था में फूल पत्तियों में परिवर्तित हो जाते हैं इससे पूरा पुष्प गुच्छा छोटी-छोटी पत्तियों में बदल जाते हैं।

रोकथाम

  • मोनोक्रोटोफास 36% SL 250 ml प्रति एकड़ में।
  • कुइनालफास 25% EC 800 ml प्रति एकड़ में।
  • ऑक्सीडेमेटल मिथाइल 25% EC 500 ml प्रति एकड़ में।

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